
हर वर्ष 15 अगस्त का सूरज, इतिहास के पन्नों पर एक अमिट क्षण लेकर आता है। 15 अगस्त 1947 को भारत ने लगभग 200 वर्षों की गुलामी के बाद आज़ादी हासिल की। यह आज़ादी किसी उपहार के रूप में नहीं मिली, बल्कि असंख्य बलिदानों, संघर्षों और अनवरत प्रयासों के बाद प्राप्त हुई।
आज़ादी की दास्तान उतनी ही लंबी है जितनी लंबी हमारे वीरों की कुर्बानियाँ। 1757 की प्लासी की लड़ाई के बाद अंग्रेजों ने धीरे-धीरे भारत पर अपना शिकंजा कसना शुरू किया। लेकिन भारत की जनता ने कभी भी गुलामी को स्वीकार नहीं किया और लगातार अत्याचार के खिलाफ आवाज़ उठाई। 1857 की क्रांति इस संघर्ष का पहला बड़ा चरण थी जब सैनिकों और आम जनता ने अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ विद्रोह किया। भले ही यह विद्रोह असफल रहा, लेकिन इसने आज़ादी के बीज बो दिए।
20वीं सदी में स्वतंत्रता आंदोलन ने नया रूप लिया। महात्मा गांधी के नेतृत्व में असहयोग आंदोलन और सविनय अवज्ञा आंदोलन ने अंग्रेजों की नींव हिला दी। दूसरी ओर, भगत सिंह, चंद्रशेखर आज़ाद, सुभाष चंद्र बोस और अनगिनत क्रांतिकारियों ने देश की आज़ादी के लिए अपने प्राण न्यौछावर कर दिए। 1928 में सायमन कमीशन के विरोध से लेकर 23 मार्च 1931 को भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव की शहादत तक, इन बलिदानों ने स्वतंत्रता की लौ और प्रखर कर दी।
1942 का भारत छोड़ो आंदोलन आज़ादी की लड़ाई का निर्णायक मोड़ साबित हुआ। “करो या मरो” के नारे ने पूरे भारत को झकझोर दिया। लाखों भारतीयों ने जेलों की यातनाएँ सही, अपने प्राणों की आहुति दी, लेकिन स्वतंत्रता के मार्ग से पीछे नहीं हटे।
अंततः, अनगिनत संघर्षों और बलिदानों के बाद, 15 अगस्त 1947 को स्वतंत्रता का सपना साकार हुआ। हालाँकि, यह आज़ादी देश के विभाजन की पीड़ा के साथ आई, जहाँ लाखों लोग मारे गए और अनगिनत परिवार बिखर गए। लेकिन इस दर्द के बीच भी स्वतंत्रता का उल्लास अपार था।
स्वतंत्रता दिवस न केवल हमारे पूर्वजों की कुर्बानियों की याद दिलाता है, बल्कि यह हमारी जिम्मेदारी भी तय करता है कि हम इस कठिनाई से अर्जित स्वतंत्रता की रक्षा करें और इसे और मज़बूत बनाएँ। शहीदों की कुर्बानियाँ हमारे लिए प्रेरणास्रोत हैं, जो हमें सिखाती हैं कि स्वतंत्रता अनमोल है और इसकी रक्षा हर कीमत पर करनी होगी।