
चुनाव लड़ने पर रोक लगायी तो राजनीतिक दलों ने किस तरह बखेडा खड़ा किया था। सर्वोच्च अदालत ने राजनीति में आपराधीकरण को रोकने के लिए आदेश दिया था कि उम्मीदवार कम से कम तीन बार अखबार और टीवी चैनल में प्रचार कर अपनी अपराधिक पृष्ठभूमि को सामने लाएं। न्यायालय के आदेश के बाद चुनाव आयोग ने इस बारे में एक अधिसूचना भी जारी की। लेकिन इस पहल के बावजूद भी राजनीति का अपराधीकरण नहीं रुका है। दरअसल राजनीतिक दलों को विश्वास हो चुका है कि जो जितना बड़ा दागी है उसके चुनाव जीतने की उतनी ही बड़ी गारंटी है। पिछले कुछ दशक में इस राजनीतिक मनोवृत्ति को जबरदस्त बढ़ावा मिला है। लेकिन विचार करें तो इस स्थिति के लिए सिर्फ राजनीतिक दल और उनके नियंता ही जिम्मेदार नहीं हैं। बल्कि इसके लिए देश की जनता भी बराबर की गुनाहगार है। जब देश की जनता ही साफ-सुथरे प्रतिनिधियों को चुनने के बजाए जाति-पांति और मजहब के आधार पर बाहुबलियों और दागियों को चुनेगी तो स्वाभाविक रुप से राजनीतिक दल उन्हें टिकट देंगे ही। नागरिक और मतदाता होने के नाते जनता की भी जिम्मेदारी है कि वह ईमानदार, चरित्रवान, विवेकशील और कर्मठ उम्मीदवारों को अपना जनप्रतिनिधि चुने। यह तर्क देना उचित नहीं कि कोई भी दल साफ-सुथरे लोगों को चुनावी मैदान में नहीं उतारता है इसलिए दागियों को चुनना हमारी मजबूरी है। यह एक खतरनाक और शुतुर्गमुर्गी सोच है। देश की जनता को समझना होगा कि किसी भी राजनीतिक व्यवस्था में नेताओं के आचरण का बदलते रहना स्वाभावगत प्रक्रिया है। देश की सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक तरक्की के लिए जितनी सत्यनिष्ठा व समर्पण राजनेताओं की होनी चाहिए उतना ही जनता की भी है। उचित होगा कि देश के विपक्षी दल संविधान (एक सौ तीसवां संशोधन) विधेयक का अनावश्यक विरोध कर जेल से संसद और सरकार चलाने की कुत्सित मानसिकता का समर्थन न करें।